महाराजा विक्रमादित्य के समय की बात है , एक बड़ा ही संतुष्ट ब्राह्मण जिसे किसी चीज़
की आवश्यकता अनुभव नहीं होती , अपने परिवार के सा बड़े सुख से रह रहा है !
एक दिन उसकी धर्मपत्नी ने उसे जबरदस्ती घर से बाहर भेज दिया , जाओ कुछ कमा कर लाओ !
ब्राह्मण बेमन से घर से निकल पड़ा है ! सीधा जंगल की तरफ़ चल पड़ा है !
ब्राह्मण है जंगल की तरफ़ ही जाएगा !
जंगल में जाते ही एक संत महात्मा मिल गए हैं ! संत के सामने अपनी व्यथा रखी है !
महाराज जी मुझे किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है , मेरी पत्नी ने जबरदस्ती भेज दिया है !
संत ने एक पत्र लिखा है , और कहा कि जाकर
राजा विक्रमादित्य को सौंप देना ! ब्राह्मण वह पत्र लेकर राजा के पास चला गया है !
पत्र में संत ने लिखा है - "
आपको आध्यात्मिक शिक्षा लेने का बड़ा शौक था , अब समय आ गया है ! इस ब्राह्मण को सारा राज्य सौंप कर चले आओ !
राजा ने तुरन्त वन को जाने की तैयारी कर ली है और सारा राजपाट उस ब्राह्मण को सम्भालने का आदेश दे दिया है !
ब्राह्मण सोचता है कि ऐसा उस संत के पास क्या है जो राजा को राजपाट से भी कीमती है , जिसे राजा छोड़कर संत के पास जा रहा है ! अवश्य उसके पास इससे भी कीमती वस्तु होगी , जो यह राजा पाने को उतावला है !
ब्राह्मण राजा से कहता है , कि राजन् राजपाट सम्भालने से पहले मैं उस संत से एक बार भेँट करना चाहता हूँ !
आज्ञा पाकर ब्राह्मण उस संत के पास पहुँच गया है ! " महाराज , ऐसा क्या है जो राजा के पूरे राजपाट से भी बढ़कर है ? "
" मेरे पास राम - नाम है "- संत उत्तर देते हैं ! " तो महात्मन मुझे भी यह राम - नाम ही दे दो मुझे राज पाट नहीं चाहिये " !
इतनी ऊँची चीज़ है.....
यह राम - नाम......
साधक जनों !