Wednesday, 18 December 2013

मालिक कहां है.....


साहेब-मालिक-इश्वर-परमात्मा कहाँ है....

जैसे यह दिखाई नही देता....
01) ढोल में जैसे नाद
02) बादल में जैसे बिजली
03) थाली में झन्नाट
04) बाजे में छतीस राग
05) लकड़ी में चकमक
06) पोलाद में पथरी
07) चकमक में आग
08) गन्ने में शक्कर
09) दुध में घी
10) तील में तेल
11) कीड़े में रेशम
12) फुल में सुगंध
13) आत्मा में परमात्मा
जैसे यह बताते नही आता...
14) मछली का रास्ता
15) भवरे की विहंगम चाल
16) स्त्री सुख का वर्णन
17) घी का स्वाद का वर्णन

इस प्रकार से वह परमात्मा चराचर में व्याप्त है।

आदि सतगुरु
सुखराम जी महाराज ने
धन्य हो। धन्य हो।

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Tuesday, 17 December 2013

सुभ कर्म


।। राम राम सा।।

सुभ ही कर्म असुभ ही कवावे।
इन दोनु बिच जक्त बंधावे।।
देता दुःख लेवता सोई।
भूगत्या बिना न छूटे कोई।।

शुभ और अशुभ दोनो भी कर्म ही कहलाते है। इन दोनों कर्मो में जिव संसार से बांधे गये है। ये भोगे बिना नही छूटते।

.............(अजर लोक ग्रन्थ)
आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज ने धन्य हो। धन्य हो।

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खटराग....

खटरागां साथे करे ,
एकण समचे कोय ।
तो गुण एक न प्रगटे ,
ऐसो ज्ञानी ज़ोय ।
ऐसो ज्ञानी ज़ोय ,
तत्त जागे सो बाणी ।।
वे न्यारा सुण शब्द ,
भेद बिन लखें न प्राणी ।
सुखराम कहे प्रेम वो ,
पुन ही प्रगट होय ।।
खटरागा साथ करे ,
ऐकण समचे कोय ।।

   जैसे छः रागों को एक साथ गाने पर एक का भी गुण प्रगट नहीं होता ।
इसी तरह से जगत के ज्ञानी अनेक साधन व करणीया करते हैं ।उससे करमों का नाश नहीं होता ।
परमात्मा का निज नाम याने ने:अन्छर जब तक प्रगट नहीं होता ।
याने भेद नहीं मिलता तब तक
करमों का नाश नहीं होता ।
सतगुरु विधि से प्रेम से भजन
करने पर ही ने:अन्छर प्रगट
होता हैं ।
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अम्र लोक सु.....


।। राम राम सा।।

अम्र लोक सु म्हे चल आऊं।
झूठ साँच को न्याव चुकाऊ।।
प्रम भक्त बिन मुक्त न होई।
धाम भजन बिन जाय न कोई।।

आदि सतगुरुजी महाराज साहेब कहते है, मै यहां अमर लोक से चलकर आता हूँ। यहाँ झूठ और सच क्या है (संसार की अन्य भक्ति का ज्ञान-पहुंच-निर्णय) इसका निर्णय बताता हूँ। इस परम भक्ति के बिना मुक्ति नही होगी। भजन (सतास्वरुपी राम नाम का विधियुक्त सुमिरन) के बिना मनुष्य मनुष्य अमर धाम में नही जा सकता।

.............(अजर लोक ग्रन्थ)
आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज ने धन्य हो। धन्य हो।

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देस देस का हंसा....


।। राम राम सा।।

देस देस का हंसा आवे।
न्यारी बोळी बेन सुनावे।।
अजर लोक का बायक न्यारा।
बिर्ला लखे सब्द संसारा।।

आदि सतगुरुजी महाराज साहेब कहते है। इस मृत्युलोक में अलग अलग लोक से हंस आते है। अपनी अलग अलग बोली बोलते है। (जैसे देश विदेश में अलग
अलग बोली बोलते है वह भाषा हमे समझ में नही आती) वैसेही यहाँ अन्य लोग अपने देश की महिमा करता है। मै जो अजर लोक के वाक्य बोलता हूँ। ये अलग है। ये संसार के कोई बिरला ही समझेंगे और भजन (सतस्वरुपी राम नाम का विधियुक्त सुमिरन) के बिना मेरे देश में कोई नही आ सकता।



.............(अजर लोक ग्रन्थ)
आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज ने धन्य हो। धन्य हो।

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Saturday, 30 November 2013

प्रकटे नही...

खटरागां साथे करे ,
एकण समचे कोय ।
तो गुण एक न प्रगटे ,
ऐसो ज्ञानी ज़ोय ।
ऐसो ज्ञानी ज़ोय ,
तत्त जागे सो बाणी ।।
वे न्यारा सुण शब्द ,
भेद बिन लखें न प्राणी ।
सुखराम कहे प्रेम वो ,
पुन ही प्रगट होय ।।
खटरागा साथ करे ,
ऐकण समचे कोय ।।


   जैसे छः रागों को एक साथ गाने पर एक का भी गुण प्रगट नहीं होता । इसी तरह से जगत के ज्ञानी अनेक साधन व करणीया करते हैं ।उससे करमों का नाश नहीं होता ।
परमात्मा का निज नाम याने ने:अन्छर जब तक प्रगट नहीं होता । याने भेद नहीं मिलता तब तक
करमों का नाश नहीं होता ।सतगुरु विधि से प्रेम से भजन करने पर ही ने:अन्छर प्रगट होता हैं ।
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Friday, 29 November 2013

सुमिरन-भजन



मुठी मुठी पिसता।
के मण आटा होय।।
टोपे टोपे सरभरे।
"हरिया" कुद्रत जोय।।

"हरिया" नामके संत कहते है...(पहले जमाने में आटा पिसने की चक्किया नही थी, महिलाये सुबह उठकर घरपर ही अनाज पिसती थी)
अगर किसी स्त्री के सामने बोरा भरके अनाज रख दिया और उसे पिसने को कहा तो वह असंभव सी बात होगी। लेकिन वही स्त्री रोज थोडा थोडा (मुठी-मुठी) अनाज पिसते पिसते जीवन भर में कई बोरे अनाज पिसती है। इसी प्रकार बूंद बूंद से सागर बनता है।
एसेही रोज एक प्रहार (3 घंटे) भजन अगर हम करते है तो एक साल में (1080 घंटे) 45 दिन मतलब डेढ़ महिना भजन होता है। दस साल में सवा साल भजन होता है। चालीस साल में पुरे पांच साल का भजन होता है। जो की किसी भी संसारी व्यक्ति को असंभव नही है। इसलिए रोज थोडा थोडा भजन करे तो वह हम सब के हित में ही है।



......आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज ने ......धन्य हो। धन्य हो।। धन्य हो।।।

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Monday, 25 November 2013

न्यारा किसब....

सरब किसब न्यारा करे ,
अन्न सकल ले आण ।
ईऊँ करणी सिवरण ध्यान लग ,
पूरण ब्रह्म पिछाण ।।
पूरण ब्रह्म पिछाण ,
अन्न सू खुद्या जावे ।
सुण फिर लागे भूख ,
ब्रह्म होय ईऊं गरभ आवे ।।
सुखराम उपाया भजन लग ,
सब एकी कर जाण ।
सरब किसब न्यारा करे ,
अन्न सकल ले आण ।।
                                          
अर्थ......
अलग अलग करम कर के सभी जन अन्न घर पर लाते हैं , और अपनी अपनी भूख शान्त करते हैं । एसे ही जगत में सभी जन अलग अलग भक्तियां कर के पूरण ब्रह्म याने पारब्रह्म तक की प्राप्ति कर सकते हैं । जैसे
खाना खाने से भूख कुछ समय
तक मिटती हैं ठीक ऐसे ही
कुछ समय की विश्रांति के बाद वापस गरभ में आना पड़ता हैं । जन्म मरण मिटता नही। इसलिए सतस्वरूप की भक्ति करो जन्म  मरण मिटाओ।

© सतस्वरुप आनंद पद ने:अन्छर निजनाम ग्रंथ से

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Saturday, 23 November 2013

नानक जी

एक बार गुरुनानक सिलायकोट पधारे। लोगों से उन्हें
पता चला कि हमजागौस नामक एक मुसलमान पीर लोगों को तंग
करता है।
नानकदेव ने हमजा गौस को बुलाकर लोगों को तंग करने का कारण
पूछा।
वह बोला - यहां के एक व्यक्ति ने पुत्र
प्राप्ति की कामना की थी। मैंने उससे कहा कितुम्हें पुत्र होगा,
किंतु वह मेरी कृपा सेहोने के कारण तुम्हें उसे मुझे देना होगा।
उसने उस समय तो यह शर्त स्वीकार कर ली, पर बाद में वह
उससे मुकर गया। इसलिए मैं इस झूठी नगरी के
लोगों को उसका दंड देता हूं।
नानक देव ने हंसते हुए पूछा, 'गौस! मुझे यह बताओ
कि क्या उस व्यक्ति के लड़का वास्तव मेंतुम्हारी कृपा से
ही हुआ है?'
' नहीं, वह तो उस पाक परवरदिगार की कृपा से हुआहै' - उसने
उत्तर दिया।
नानक देव ने आगे प्रश्न किया - फिर उनकी कृपा को नष्ट करने
काअधिकार तुम्हें है या स्वयं परवरदिगार को? खुदा को सभी लोग
प्यारे हैं।
गौस ने कहा - मुझे तो इस नगरी में खुदा का प्यारा एक
भी आदमी दिखाई नहीं देता। यदि होता, तो उसे मैं नुकसान न
पहुंचाता।
इस पर संत नानक ने अपने शिष्य मरदाना को बुलाकर दो पैसे
देते हुए एक पैसे का सच और एकपैसे का झूठ लाने को कहा।
मरदाना गया और जल्दी ही एक कागज का टुकड़ा ले आया, जिस
पर लिखा हुआ था, जिंदगी झूठ, मौत सच!
गौस ने इसे जब पढ़ा तो बोला- केवल लिखने से क्या होता है?
तब नानक देव ने मरदाना से उस व्यक्ति को लाने को कहा।
उसके आने पर वे उससे बोले - क्या तुम्हें मौत का भय नहीं है?
अवश्य है - उसने जवाब दिया।
तब माया जंजाल में तुम कैसे फंसे हो? - नानक बोले।
- अब मैं अपना कुछ भी नहीं समझूंगा। यह कहकर वह
व्यक्ति चला गया। गौस को भी सब कुछ समझ मेंआ गया।

समझ समझ..

सतस्वरुप आनंदपद ग्रन्थ

समझ समझ प्राणिया जो मोख चहिये,
ऐसी भगत गहें रहिए बे,
सतगुरु शरणों धार सिस पर,
राम राम मुख लहिये बे।।

आदि सतगुरूजी महाराज साहेब जगत के सभी नर नारियों से कह रहे हैं कि हे प्राणि तू समझ अगर तुझे परम मोक्ष (सतस्वरुप आनंद पद) चाहिए तो मैं जो भक्ति(सतस्वरुपी राम की) तुझे कहता हूं वो तू कर। उसके लिए तुझे सतस्वरुपी सतगुरु का शरणा लेना होगा। मतलब हंस के निज मन से सतगुरु के शरण मे जाना होगा। ऐसे सतगुरु का शरणा लेने के बाद सतगुरु विधि द्वारा धारों धार राम भजन करना पडेगा, तब तुझे परम मोक्ष की प्राप्ति होगी।




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Thursday, 21 November 2013

सब सुख दाता "राम"

सभ सुख दाता रामु है
दूसर नाहिन कोइ॥
कहु नानक सुनि रे मना
तिह सिमरत गति होइ ॥

अर्थ- परमात्मा सब सुख देने वाला है , उसके अतिरिक्त कोई दुसरा नही । गुरू नानक निर्देश करते है कि हे मन ! उसका सुमिरन करने से ही मुक्ति होती है।

जिह सिमरत गति पाईऎ
तिह भजु रे तै मीत ॥
कहु नानक सुनु रे मना
अउध घटत है नीत ।।

अर्थ- हे मित्र ! जिसका सुमिरन करने से मुक्ति प्राप्त होती है,उसी का तुम किर्तीगान करो । गुरू नानक कहते है कि हे मन ! मेरी बात सुन , जिंदगी हर रोज घट रही है।

पांच तत्त को तनु रचिओ
जानहु चतुर सुजान ॥
जिह ते उपजिओ नानका
लीन ताहि मै मानु॥

अर्थ- हे चतुर व्यक्तियो ! यह जान लो कि ईश्वर ने पाँच तत्वों से तन की रचना की है । नानक का कथन है कि यह अच्छी तरह मान लो, जिससे उत्पन्न हुए हो , उसी में विलीन हो जाना है ॥

......................गुरू ग्रंथ साहिब.........राम राम 

भजन


भजन
(सुमिरन)

एक भजन तन सु करे।
एक भजन मन होय।।
एक भजन तन मन परे।
सदा अखंडित होय।।

करो हरी का भजन प्यारे
उमरिया बीती जाती है........

Wednesday, 20 November 2013

मुर्दों का गाँव...

मित्रों
मृत्यु सत्य है।

साधो ये मुरदों का गांव
पीर मरे
पैगम्बर मरिहैं
मरि हैं जिन्दा जोगी
राजा मरिहैं
परजा मरिहै
मरिहैं बैद और रोगी
चंदा मरिहै
सूरज मरिहै
मरिहैं धरणि आकासा
चौदां भुवन के
चौधरी मरिहैं
इन्हूं की का आसा
नौहूं मरिहैं
दसहूं मरिहैं
मरि हैं सहज अठ्ठासी
तैंतीस कोट
देवता मरि हैं
बड़ी काल की बाजी
नाम अनाम
अनंत रहत है
दूजा तत्व न होइ
कहत कबीर
सुनो भाई साधो
भटक मरो ना कोई ।

मित्रों...सोचो...

Tuesday, 19 November 2013

दसवाँ द्वार

मित्रवर,

हमारे शारीर में कुल दस दरवाजे है।
जिसमे नऊ दरवाजे सभी के खुले है।
मृत्यु समय प्राण
इन्ही नऊ दरवाजे से निकलता है।
आँखों के दो।
कान के दो।
नाक के दो।
मुख का एक।
यह सात और....
मल तथा मूत्र ये दो।
कुल नऊ दरवाजे।
उपर के सात दरवाजे से जानेवाला जिव स्वर्गादिक देश में जाता है।
निचे के दो द्वार से जानेवाला जिव नर्कादिक में जाता है।
लेकिन जो सीर के शिखा की चोटी पर दसवा द्वार होता है। संत सतगुरु से भेद लेकर यह दसवाद्वार खोल कर हम आवागमन-जन्म मरण मिटा सकते है।

© सतस्वरुप आनंदपद ने:अन्छर निजनाम ग्रन्थ से....
शानू पंडित...पुणे.


Monday, 18 November 2013

श्वास....

दादू ऐसे महँगे मोलका, एक श्वास जे जाय ।
चौदह लोक समान सो, काहे रेत मिलाय ॥

दृष्टांत -
कश्यप चौदह लोक का,
श्वास सटे दे राज।
जाट खेत का दूसरा,
लाल गमाई बाज ॥
 (बाज- व्यर्थ)

कश्यप ऋषि के देहान्त का समय आया तो देवता आदि ने कहा सेवा बतावें ।
कश्यप- मेरी आयु बढ़ा दो ।
देवतादि- यह तो हम नहीं कर सकते ।
कश्यप- एक श्वास ही दे दो ।
तब भी सब मौन ही रहे ।
तब कश्यप ने कहा-
देखो, श्वास इतना अमूल्य हैकि चौदह लोकों का राज्य देने पर भी नहीं मिलता है।
इससे एक श्वास इतना अमूल्य है कि कीमत चौदह लोकों के मूल्य सेभी अधिक है ।
एसे श्वासों को तुम विषय भोग रुप रेत मेंक्यों मिलाते हो ?
अर्थात प्रत्येक श्वास के साथ राम नाम का सुमिरन भजन
करना चाहिये ।

Sunday, 17 November 2013

काल और परमात्मा


मित्रों,
शायद हमे यह भेद नही समझ रहे है।
इसीलिए दुःख भोग रहे है।

चलती चाकी देख कर।
दिया कबीरा रोय।।
दोय पाटन के बिच में।
साबित बचा न कोय।।
(माया तथा ब्रह्म की भक्ति करने वाले काल के मुख में जाते है)

चलती चाकी देखकर।
गया कबिरा खिल।।
राखन हारा राखत है।
जो जाय किली से मिल।।
(परमात्मा की भक्ति करने वाले काल के मुख से बच जाते है)

............... कबीर साहेब

मार्कंडेय

एक समय ऋषि मार्कण्डेय बंगाल की खाड़ी में तप कर रहा था। इन्द्र को पता चला तो सोचा कही मेरी इन्द्र की पदवी को प्राप्त ने कर ले। इसका व्रत भंग कराना चाहिए।
इन्द्र ने एक ऊर्वशी को भेजा। वह सुन्दर ऊवर्शी सर्व श्रृगार (आभूषण आदि पहन कर) करके ऋषि मार्कण्डेय जी के सामने जाकर नाचने लगी। इन्द्र ने अपनी सिद्धी शक्ति से उस क्षेत्र
का वातावरण सुहावना बसन्त ऋतु जैसा कर दिया तथा गुप्त बाजे बजा दिए। ऊर्वशी ने सर्व राग गाए बहुत प्रकार के नाच नाचे।
मार्कण्डेय ऋषि आधी आँखों को खोले हुए सर्व कौतुक देखते रहे। कोई गति विधि नहीं की। हार कर ऊर्वशी निःवस्त्र हो गई।
तब मार्कण्डेय ऋषि बोले हे बेटी! हे माई! तू किस उद्देश्य से यह सब कर रही है। तब ऊर्वशी बोली हे मार्कण्डेय ऋषि पता नही आप की योग समाधी किस स्थान पर है आप मेरे
ऊपर आसक्त नहीं हुए। इस बनखण्ड (वन के इस भाग) के सर्व तपस्वी तो मेरे रूप को देखते ही जैसे दीपक पर पतंग गिर कर नष्ट हो जाते हैं ऐसे अपनी साधना नष्ट कर बैठे। तब मार्कण्डेय
ऋषि बोले मैं जिस ब्रह्म लोक में समाधी दशा में ऊर्वशीयों के नाच देख रहा था वहाँ पर नाचने वाली स्त्रियाँ इतनी सुन्दर हैं कि तेरे जैसी स्त्रियाँ तो उनके पैर धोने अर्थात् सेवा करने वाली सात सात नौकरानीयाँ हैं। तूझे क्या देखू । तेरे से कोई
और सुन्दर हो तो उसे भेज।
तब ऊर्वशी बोली हे मार्कण्डेय ऋषि! इन्द्र की पटरानी (मुख्य स्त्री) मैं ही हूँ। मेरे से सुन्दर स्त्री स्वर्ग लोक में नहीं है। आप एक बार मेरे साथ इन्द्र लोक मे चलो। नहीं तो मुझे सजा मिलेगी।
मार्कण्डेय ऋषि बोले, इन्द्र मरेगा तब किसे पति बनाएगी ?
ऊर्वशी बोली मैंने ऐसी भक्ति कमाई की है कि मैं चौदह इन्द्रों के शासन काल तक इन्द्र की मुख्य स्त्री के रूप में सुख भोगती रहूँगी।

भावार्थ है कि इन्द्र अपना 72 चतुर्युग का समय पूरा करके मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। अन्य इन्द्र पदभार सम्भालेगा। उस की मुख्य स्त्री मैं ही रहूँगी मेरा नाम शची है। इस प्रकार मैं चौदह इन्द्र भोगूंगी।
मार्कण्डेय ऋषि बोले वे चौदह इन्द्र भी मरेगें तब तू क्या करेगी ?
ऊर्वशी बोली जितने इन्द्र मुझे भोगेंगे वे मृत्यु के पश्चात् पृथ्वी लोक में गधे बनेंगे तथा मैं गधी बनूंगी।
ऐसा विधाता का विधान है ।
मार्कण्डेय ऋषि बोले! मुझे किसलिए उस लोक में ले जाना चाहती है जिस लोक का राजा भी गधों का शरीर धारण करता है ?
उर्वशी ने कहा! मैं अपनी इज्जत रखने के लिए आप को इन्द्रलोक में चलने के लिए कह रही थी। इन्द्रलोक में कहेंगे तू हार कर आई है?
मार्कण्डेय ऋषि बोले! तू चौदह इन्द्रों से भोग विलास करेगी तो तेरी इज्जत कहाँ है। प्रतिव्रता अर्थात् इज्जतदार स्त्री तो एक पति तक ही सीमित रहती है।
मरने के पश्चात् तू गधी बनेगी फिर भी अपनी इज्जत से डरती है। चौदह खसम करेगी तो तू आज भी गधी है।
इतनी बात सुनकर शर्म के मारे ऊर्वशी का चेहरा फीका पड़ गया तथा वहाँ से चली गई।
उसी समय इन्द्र आया।
इन्द्र बोला हे महर्षि मार्कण्डेय जी! आप जीते हम हारे। चलिए आप मेरे वाली इन्द्र की गद्दी प्राप्त कीजिये ।
मार्कण्डेय ऋषि बोले! रे रे इन्द्र क्या कह रहा है? मेरे लिए तो इन्द्र की पदवी कोवै (काग) की बीठ (टटी) के समान है। एक समय मैं ब्रह्म लोक (महास्वर्ग) में जा रहा था।
वहाँ पर अनेकों इन्द्रों ने मेरे चरण लिए। हे इन्द्र! तू इस पदवी को त्याग दे। मैं तुझे ऐसी भक्ति विधि बताऊँगा जिससे तू ब्रह्म लोक
(महास्वर्ग) में चला जाएगा।
इन्द्र बोला हे ऋषि जी! अब तो मुझे इन्द्र का राज्य करने दो फिर कभी देखूंगा आप वाली भक्ति को।
यह कह कर इन्द्र चला गया।

एक दिन मार्कण्डेय ऋषि एक चिट्टियों की पंक्ति का निरीक्षण कर रहे थे। इन्द्र उनके पीछे खड़ा हो गया । बहुत देर तक मार्कण्डेय ऋषि बैठे-2 चिट्टियों की पंक्ति को देखते रहे तब इन्द्र ने पूछा हे ऋषि जी इन चिट्टियों को इतने ध्यानपूर्वक
किस लिए देख रहे हो ?
मार्कण्डेय ऋषि बोले! हे इन्द्र! मैं यह देख रहा था कि कौन सी चिट्टी कितने बार इन्द्र की पदवी पर रही है।
 इन्द्र को आश्चर्य हुआ तथा पूछा हे ऋषि जी ! क्या ये चिट्टियाँ भी कभी इन्द्र रही हैं?
मार्कण्डेय ऋषि बोले ! हाँ इन चिट्टियों में एक चिंट्टी ऐसी है जो केवल एक बार इन्द्र बनी है शेष तो कई-2 बार इन्द्र की पदवी को प्राप्त हो चुकी है। इन्द्र को बहुत आश्चर्य हुआ।

मार्कण्डेय ऋषि बोले इन्द्र अब भी कर ले ब्रह्मलोक की भक्ति। इन्द्र ने फिर वही शब्द दोहराए कि फिर कभी देखुंगा अभी तो स्वर्ग का राज्य करने दो।
जबकि इन्द्र को पता है कि इन्द्र की पदवी का समय पूरा होने के पश्चात् गधे की योनि में जाएगा। परन्तु विषयों का आनन्द छोड़ने को मन नही करता।
इसी प्रकार पृथ्वी पर भी यदि किसी व्यक्ति को थोड़ा सा भी सुख है, वह कुछ व्यसन करता है। शराब पीता है अन्य नशीली वस्तुओं का प्रयोग
करता है। यदि व्यसन नहीं करता है उसके घर में वर्तमान पुण्यों के प्रभाव से सुख है। यदि वह
परमात्मा की भक्ति नहीं करता है। उसे कोई सन्त, भक्त कहे
कि आप परमात्मा का नाम जाप किया करो। गुरु धारण करो। वह
कहता है कि फिर कभी देखेंगे। उसे फिर कहा जाता है
कि जो परमात्मा का भजन नहीं करते मृत्यु के पश्चात् पशु-
पक्षी की योनियों में शरीर धारण करना पड़ता है।

साधक जनों....

महाराजा विक्रमादित्य के समय की बात है , एक बड़ा ही संतुष्ट ब्राह्मण जिसे किसी चीज़
की आवश्यकता अनुभव नहीं होती , अपने परिवार के सा बड़े सुख से रह रहा है !
एक दिन उसकी धर्मपत्नी ने उसे जबरदस्ती घर से बाहर भेज दिया , जाओ कुछ कमा कर लाओ !
ब्राह्मण बेमन से घर से निकल पड़ा है ! सीधा जंगल की तरफ़ चल पड़ा है !
ब्राह्मण है जंगल की तरफ़ ही जाएगा !
जंगल में जाते ही एक संत महात्मा मिल गए हैं ! संत के सामने अपनी व्यथा रखी है !
महाराज जी मुझे किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है , मेरी पत्नी ने जबरदस्ती भेज दिया है !
संत ने एक पत्र लिखा है , और कहा कि जाकर
राजा विक्रमादित्य को सौंप देना ! ब्राह्मण वह पत्र लेकर राजा के पास चला गया है !
पत्र में संत ने लिखा है - "
आपको आध्यात्मिक शिक्षा लेने का बड़ा शौक था , अब समय आ गया है ! इस ब्राह्मण को सारा राज्य सौंप कर चले आओ !
राजा ने तुरन्त वन को जाने की तैयारी कर ली है और सारा राजपाट उस ब्राह्मण को सम्भालने का आदेश दे दिया है !
ब्राह्मण सोचता है कि ऐसा उस संत के पास क्या है जो राजा को राजपाट से भी कीमती है , जिसे राजा छोड़कर संत के पास जा रहा है ! अवश्य उसके पास इससे भी कीमती वस्तु होगी , जो यह राजा पाने को उतावला है !
ब्राह्मण राजा से कहता है , कि राजन् राजपाट सम्भालने से पहले मैं उस संत से एक बार भेँट करना चाहता हूँ !
आज्ञा पाकर ब्राह्मण उस संत के पास पहुँच गया है ! " महाराज , ऐसा क्या है जो राजा के पूरे राजपाट से भी बढ़कर है ? "
" मेरे पास राम - नाम है "- संत उत्तर देते हैं ! " तो महात्मन मुझे भी यह राम - नाम ही दे दो मुझे राज पाट नहीं चाहिये " !
इतनी ऊँची चीज़ है.....
यह राम - नाम......
साधक जनों !

Saturday, 16 November 2013

प्रश्न....



आपको सतस्वरुप की भक्ति सम्बन्धी कोई प्रश्न / शंका हो तो आप यहाँ पूंछ सकते हो। गुरुज्ञान के हिसाब से जवाब देने की मेरी कोशिश रहेगी।
...........शानू भाई

Friday, 18 January 2013

अजात शत्रु .... आलस

मित्र .....
काफी समय व्यतीत हुआ ....
मिलने लिखनेकी तमन्ना बहुत हुई .....लेकिन ......
जेहन में बहुत उथलपुथल मची हुई थी .....
कुछ मायने एसे बने .....
कंही मायाने घेरा ......
कही अजात शत्रु ....
आलस ने ....
लेकिन अबके एसा समय न आये इसकी पराकाष्ठा करूँगा ....
अत भूल मानव स्वाभाव हैं .......
'टाबर सदा कुटाबर होवे , बाप बिरच नहीं जावे !'
जल्द ही मिलूँगा ....बहुत सारे जवाबोंके साथ ....
शानुपंडित .....पुणे ....