Friday, 16 June 2017

संतदास

सतस्वरुपी नाम
भजले "राम राम"

अग्नि जलावे संत दास
जा को यही स्वभाव l
राम नाम तारे सही
लेवे भाव कुभाव ll

इसका सीधा सीधा अर्थ है की अग्नि का स्वभाव / गुण जैसे जलाना (सामने वाले वस्तु को भस्मसात करना) होता है
वैसे ही नाम का स्वभाव / गुण यह है की जीव को तारना यही है

जैसे संत कहते है
भाव कुभाव आलस आनख हूँ
नाम जपत मंगल दिस दस हूँ ll

नाम आप कैसे भी लो भावपूर्ण कहो ... राम राम
कुभाव से कहो ... क्या राम राम लगा दिया
आलस मे कहो ...राम
किसी भी तरह से राम नाम लोग तो वह दसो दिशामे मंगल दायक है

तुलसीदास जी कहते है

तुलसी मेरे राम को
रीझ भजो या खिज
ज्यू पड़े भौम पर
उलटे सीधे बीज

वह राम नाम आप रीझ कर कहो या खिज कर कहो वह तार ही देगा
जैसे किसान भूमि मे बीज बोता है बोते समय यह नही देखता की बीज उलटा गिर रहा है या सीधा
उस बीज मे ताकद होती है की वह जमीन को फाड़ कर अपना अस्तित्व दुनिया के सन्मुख रखता है उसी प्रकार "राम" नाम की महत्ता है की वह जीव को तार देती है

इतना ही नही
आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज कहते है

इस्तु आगे फुस केता
जल आगे क्या आग
यूँ नावज आगे कर्म हमारा
जाये इसी बिध भाग
सतगुरु तारेगा
इन भवसागर के माय
पार उतारेगा ll

इस्तु (अग्नि) के आगे फुस (कचरा) क्या चीज है ?
ओर जल के आगे आग क्या चीज है ?
इसी तरह नाव के आगे हमारा कर्म भाग जाता है मतलब राम नाम के सुमिरन से कर्म का नाश होकर हम ने कर्मी हो जाते है वह राम नाम हमे तारता है
वह जीव का स्वभाव नही देखता
ओर
वही बात संतदास जी कह रहे है
जैसे अग्नि का स्वभाव जलाना है
वैसे ही नाम का स्वभाव जीव को तारना है

राम राम सा

Wednesday, 31 May 2017

गुरु आज्ञा बिना क्या सुमिरन संभव है ?

गुरू की आज्ञा के बिना भी
सिर्फ विधी युक्त सुमिरण कर
जीव परममोक्ष जा सकता है  ?

कृपया विस्तार से बताए

संतो की अनभै वाणी मे
सभी आज्ञा चक्रो की जानकारी मिल जाती है
पर सिर्फ वाणी वाँच कर सुमिरण कर लेने
मात्र से जीव कल्याण संभव है ?

नीरज जी
आपके दोनो उपरोक्त प्रश्नो का उत्तर
एकत्रित करके बताता हूँ

गुरु के आज्ञा बिना
सिर्फ विधि युक्त सुमिरन करना यह
संभव कैसे हो सकता है
इसके लिए
गुरु की आज्ञा से पहले जीव की जरूरत महत्वपूर्ण है
बिन गुरु ( मार्गदर्शक ) आपको
पता ही कैसे चलेगा की विधियुक्त सुमिरन क्या चीज है ?
आपको जो भी बताएगा
वह आपका गुरु ही हुआ
चाहे वह ज्ञान गुरु हो
शब्द गुरु हो
या देहधारी गुरु हो
आखिर ये सभी उपज सतस्वरुप से ही है

जैसे गुरु महाराज कहते है

*पढंते लिखंते सुंनते*
*परमपद पावंते सही*

अब हमे समझना ये है की
 हमारा गुरु कौन है
ज्ञान गुरु है शब्द गुरु है की
ये दोनो जिनसे मिले वह देहधारी गुरु है
या जिसने हमे रास्ता बताया वह गुरु है

क्यो की आदि सतगुरुजी महाराज कहते है की
*चले आपणे पाँव धिन्न सो पंथ बतावे*

इनमे से
आप जिसको भी महत्व देते हो वह आपका गुरु है
ये सभी
उसी मालिक की बनी बनाई
श्रुष्टि के आप के जैसे ही जीव है
(ओर उसका मिलना ही मालिक की आज्ञा है की आप परममोक्ष पधारो)
क्यो की जीव तो पांच विषयो मे इतना रचमच गया है की उसको परममोक्ष जाना भी भूल गया है
इसीलिए

आदि सतगुरु महाराज साहेब कहते है की
जिस हंस को परममोक्ष मे मुझे ले जाना है
उसे मेरे संत से मिला देता हूँ

मतलब यहां मिलने वाले
उस मालिक के प्रतिनिधि है जो आपको
मालिक से मिलाने मे मद्त करते है
आपके लिए वे आदरणीय जरूर है लेकिन
वे (आपको मार्गदर्शन करनेवाले ) ये न समझे की
ये जीव उनकी वजह से परममोक्ष मे जा रहा है
वह तो उस मालिक की मर्जी है की
उसको मालिक ने आपका मार्गदर्शक बना दिया
वह भी अपने आप को सामान्य संत ही समझे (न की गुरु या सतगुरु)

क्यो की
सभी आतमाओंके सतगुरु तो
आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज ही है
तो साँचा सतगुरु है
आदि सतगुरु सर्व आत्माओंके सतगुरु
सर्व श्रुष्टि के सतगुरु सतगुरु सुखराम जी महाराज
और
सत्त नाम है "राम" नाम
ओर रही वाणी की बात
तो बानिजी कहो तो वह भी
*आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज* की ही है
लेकिन हकीकत ये बन बैठती है की
*जीव की अध्ययनता की कमी के कारण
वह खुद को छोटा ओर
मार्गदर्शक (गुरु) को बड़ा समझ लेता है
ओर मार्गदर्शक भी *मानबड़ाई* के कारण खुद को
बड़ा समझने लगता है
है तो सारे ब्रह्म एक जैसे
सिर्फ पराक्रम का फर्क है और कुछ नही
*न तो कोई बड़ा न तो कोई छोटा
सभी जीव एक जैसे है सिर्फ परमात्मा बड़ा है*
और उसी परमात्मा की बाणी से
*सभी स्थानों (आज्ञा चक्र) की जानकारी लिखित रूप मे
मिलती है ओर करारा भजन करने के उपरान्त अनुभव होता है*


*राम राम सा*

(मेरी तरफ से समझाने का प्रयास किया है और भी न समझ मे आये तो फोन पर संपर्क करे)


Wednesday, 26 April 2017

सगुण निर्गुण और आनंदपद की भक्ति का फर्क

बांदा तीन भक्त कहू तोई।
सुर्गुण निर्गुण आणंद पद की,यारा भेद नियारा होय।
जोगारंभ जप तप सिवरण,करनी कुछ भी होइ।
तब लग निर्गुण भक्ती नाही,सुर्गण वा कहुं तोई ।१।
निर्गुण भक्त तका सुण कहिये,तत्त पीछाणे सोई।
निर्भे हुवा भ्रम सब भगा,सांसो सोग न कोई ।२।
एक निर्गुण अंग दूसरो कहीये,जे ग्यानी कोई पावे।
सोहं जाप अजपो जपको,दसवे द्वार लग जावे ।३।
ए निर्गुण मे मिले न कोई,जायर देखे सारा।
करामात कळा कोई पावे,ब्रम्ह न हुवे बिचारा ।४।
आनंद पद की भक्ती बताऊँ,प्रथम तो मत आवे।
ग्यान,ध्यान हद का गुरु सारा,से सब ही छीटकावे ।५।
सत्तगुरु ढुंढ सरण ले जाई,जहाँ नाव कळा घट जागे।
राज जोगवो कहिये जगमे,बिन करणी धुन्न लागे ।६।
फ़ाड र पीठ चढे आकासा,फ़क्त हंस लियो।
काया पांच संग जीव रेतो,सो अब न्यारो कीयो ।७।
आणद पद की सत्ता कहीये जे,इन संग जो जन होई।
ओर जग अटके दरवाजे,ओ नही अटके कोई ।८।
राज जोग ओ कहीये भाई,ओर जोग सब लोई।
बादस्याह पास रेत नही पहुंचे, भूप मीले कहूं तोई ।९।
दरवाजा ऊला सब खुल्ले,बरज पोल लग सोई।
राज जोग बिन दसवो कहीये,सो नही खुले कोई ।१०।
के सुखराम भेद बिन जोगी,जे आस करे सब जावे।
दरवाजे सु सब जोग फ़िरिया,आगे जाण न पावे ।११।

सगुण भक्ति
निर्गुण और
आनंदपद के भक्ति का फर्क

सगुण एवम् निर्गुण 
शब्दों मे ही उसका अर्थ समाया हुआ है।

सगुण = गुणों सहित (सगुण साकार) आकार सहित

निर्गुण = गुण विरहित (निर्गुण निराकार) आकार विरहित

साकारी की भक्ति सगुण भक्ति कहलाती है
जो माया की भक्ति है

निराकारी की भक्ति निर्गुण भक्ति कहलाती है
जो ब्रह्म की भक्ति है

सबमे विशेष बात ये दोनो भक्तियाँ परमात्मा की भक्ति समझ कर दुनिया के लोग भक्ति कर रहे है
लेकिन ये दोनो परमात्मा की भक्ति नही है
"सगुण भक्ति का फल" मृत्यु पश्चात 3 लोक 14 भवन मे मिलता है 
जो की "काल" के मुख मे है
ओर
"निर्गुण भक्ति का फल"
मृत्यु पश्चात 3 ब्रह्म के 13 लोक मे मिलता है 
जो की "काल" के मुख मे ही है
क्यो की पारब्रह्म स्वयम् "महाकाल" है

आदि सतगुरु महाराज ने "सगुण निर्गुण" का एक सम्पूर्ण अंग ही लिखा है जिसमे विस्तार से यह बाते आयी हुई है
इसके अलावा "चाणक (चाणक्ष)  के अंग"  मे भी बहुत सारी बाते बाताइ है

वैसे देखा जाये तो 
आज जो सगुण भक्ति कहलाती है वह मूर्तिपूजा ओर अन्य शोभायमान भक्ति को लेकर सगुण भक्ति कहलाती है
लेकिन गुरु महाराज कहते है के मूर्तिपूजा यह सगुण कैसे हो सकती है ?
जिनका शरीर अब नही है ऐसे देवता (ब्रह्मा, विष्णु , महादेव) और अवतार (रामचंद्र,कृष्ण) उनकी मूर्ति बनाकर पूजा करना
ये कैसा सगुण कहलायेगा ? 
जब तक वे 
पांच तत्व के शरीर से यहां  मौजूद थे 
वे गुणों सहित थे 
अब उनका शरीर नही रहा 
एक तत्व की मूर्ति सगुण कैसे कहलायेगी ?

इसलिए गुरु महारज ने 
सगुण / निर्गुण / सत्स्वरूप
इन तीनो भक्तिया बांदा (हरजी भाटी) को विस्तार से समझाई
वह निम्नलिखित पद मे आयी है

बांदा तीन भक्त कहू तोई।
सुर्गुण निर्गुण आणंद पद की,यारा भेद नियारा होइ।

अरे हरजी भाटी मैं तुझे अब अलग अलग तीन भक्ति के बारे मे बताता हूँ
जगत के लोग सिर्फ दो प्रकार की भक्ति जानते है
एक सगुण ओर दूसरी निर्गुण
मैं तुझे ये दोनो और इनके परे "सतस्वरूप आंनदपद" (परमात्मा का पद) की भक्ति न्यारी न्यारी करके बताता हूँ ।

जोगारंभ जप तप सिवरण,करनी कुछ भी होइ।
तब लग निर्गुण भक्ती नाही,सुर्गण वा कहुं तोई ।१।

(जगत के लोग मूर्ति पूजा को सगुण ओर) योगारम्भ, जप, तप, सुमिरन, करणी क्रिया साधना इनको निर्गुण भक्ति समझते है
मैं कहता हूँ ये निर्गुण नही है ये तो सगुण भक्ति हुयी ।

निर्गुण भक्ति तो दो प्रकार की है 

निर्गुण भक्त तका सुण कहिये,तत्त पीछाणे सोई।
निर्भे हुवा भ्रम सब भगा,सांसो सोग न कोई ।२।

निर्गुण भक्ति किसे कहते है 
जिस संत (भक्त) ने तत्त को पहचाना है । 
इस जगत मे निर्भय हो गया किसी बात का उसे भय (डर) नही है । जिसमे कोई भरम नही रहा । जिसको कोई सांसा (फिक्र) नही है । जिसकी सोग (मरने का दुःख) नही है । वह निर्गुण भक्ति है

एक निर्गुण अंग दूसरो कहीये,जे ग्यानी कोई पावे।
सोहं जाप अजपो जपको,दसवे द्वार लग जावे ।३।

निर्गुण भक्ति का एक और (दूसरा) अंग है । जो किसी ज्ञानी को ही मिलता है और फिर वह सोहम् का जाप अजपा करके दसवेद्वार तक पहुंच जाता है ।

ए निर्गुण मे मिले न कोई,जायर देखे सारा।
करामात कळा कोई पावे,ब्रम्ह न हुवे बिचारा ।४।

लेकिन इतना होने के उपरांत भी ये निर्गुण मे जाकर नही मिलते सिर्फ उसको देखकर वापस पलटकर इस जगतमे आ जाते है 
वे करामती (पर्चे चमत्कार करनेवाले) बन जाते है । जगत के लोग उन्हें इस जगत मे ही पुजने लग जाते है उनका आवागमन नही मिटता । जन्म मरण से उनका छुटकारा नही होता l

अब इनके पर .....

आनंद पद की भक्ती बताऊँ,प्रथम तो मत आवे।
ग्यान,ध्यान हद का गुरु सारा,से सब ही छीटकावे ।५।

अब इसके बाद मैं तुझे "आनंदपद" (परमात्मा का पद) की भक्ति बताता हूँ 
परमात्मा के पद की भक्ति करने वाले की मति (मत) ऐसा हो जाता है की 
वह हद (3 लोक 14 भवन) का सारा ज्ञान ध्यान 
बेहद (3 ब्रह्म 13 लोक) का सारा ज्ञान ध्यान छोड़ देता है

ओर

सत्तगुरु ढुंढ सरण ले जाई,जहाँ नाव कळा घट जागे।
राज जोगवो कहिये जगमे,बिन करणी धुन्न लागे ।६।

"सत्तगुरु" का शरणा ढूंढता है ओर वो भी ऐसे सतगुरु की जिनके शरण मे जाकर उसके घट (शरीर) मे "नाम की कला" (सत्त कला/ कुद्रत कला) जागृत होगी ओर किसीभी कोईभी करनी क्रिया न करते हुए उसके दसवेद्वार मे एवम् साढ़ेतीन करोड़ "रोमावली" एक प्रकार की ध्वनि लग जाती है ।

ये "सतस्वरूप की सत्ता का परिणाम" है की कोई करनी क्रिया न करते हुए उसमे सत्ता प्रकट हो जाती है

इस प्रकार सगुण और निर्गुण भक्ति का फर्क है 
ओर ये भक्ति मनुष्य ही करते है
ओर
परमात्मा की भक्ति भी मनुष्य ही करते है

वैसे कहने बताने को बोहोत कुछ है
लेकिन यहां टाईप करने मे भी मर्यादा है
जब रु-ब-रु (साक्षात आमनेसामने) मिलेंगे तो ओर भी बहुतसी बाते स्पष्ट होगी
आज के जवाब मे आपको समझने के लिए इतना ही काफी है ऐसा मुझे लगता है l

ll राम राम सा ll

सतस्वरुप विज्ञान प्रश्नमंच
रामद्वारा "मिशन सतस्वरुप" पुणे
09765282928
09423492193

Monday, 2 January 2017

"मन"का .... मनका

प्रश्न :-
माला फेरत जुग भया
इस साखि का अर्थ बताइये

उत्तर :-

माला फेरत जुग भया
मिटा न मन का फेर
मनका मनका बंद कर
मन का मनका फेर ll
____________"साहेब कबीर"

संत कबीर कहते है यह हाथ मे घुमाने वाली मनके की माला घुमाते घुमाते बहुत युग बित गए
लेकिन यह मन निर्मल नही हो पाया यह मन भौतिक सुखो की चाहत मे आज भी लगा हुआ है
तो ऐसे मनके घुमाकर क्या फायदा ?
उस मनके को घुमाकर मन तो काबू मे नही आया सही जरूरत है "मन" के मनके को घुमाने की जो माया को छोड़कर ईश्वर प्राप्ति की ओर मूड सके उसकी ओर आकर्षित हो सके l
ये बाहरी  तुलसी वाला "मनका" घुमाने से कुछ नही होगा हमारा जो "मन" है जो विषय विकारो मे लगा हुआ है उसे विषय विकार छोड़कर ईश्वर की ओर घुमाने की जरूरत है l
ऐसा "साहेब कबीर" फरमाते है l


सतस्वरुप विज्ञान प्रश्नमंच
9765282928 - पुणे

ll राम राम सा ll

Sunday, 1 January 2017

ll गीरही साध ll

दरिया गीरहि साध की l
तन पिला मन सुख ll
रैन न लागे निंदडी l
दिवस न लागे भूख ll
__________" सतगुरु दरियावजी"

गृहस्थी संत की स्थिति को समझाते हुए
उसके परमात्मा के प्रति होने वाले
विरह के बारेमे सतगुरु दरियाव जी महाराज
कहते है की
उसकी स्थिति ऐसी है
जैसे कोइ प्रियतमा अपने प्रीतम के इंतजार मे
उसका शरीर पिला पड़ जाता है मन सुख जाता है
उदास रहता है
उसको रातोको नींद नही आती ओर
दिन मे उसे भूख नही लगती l
बस ऐसा ही कुछ हाल
संत का होता है
परमात्मा के विरह मे उसका मन सुख जाता है
ओर उसे भूख भी नही लगती ओर
उसकी आस मे उसे रात को नींद भी नही आती
बस मालिक के मिलने की आस बनी रहती है l

ll राम राम सा ll

शानू भाई - पुणे
2 जनवरी 2017