Wednesday, 16 April 2014

◑ भक्तियोग ◐

⊙ मिशन सतस्वरुप ⊙
   ।। सुखविलास।।

सूरत शब्द बिजोग।
मन पवना न्यारा रहे।।
ये चारू मिलन संजोग।
'भक्तियोग' याते कहें।।

सूरत शब्द सु मेल।
मन पवना दोनु गहें।।
तो लिव लागे जिण बार।
आठ प्रहर इमरत चवे।।

आदि सतगुरुजी महाराज साहेब कहते है...
मेरे शब्द और सूरत का वियोग होता था। सुरत और शब्द अलग अलग रहते थे। मन और श्वास भी अलग अलग रहते थे।
सुरत-शब्द-मन और श्वास ये चारो एक जगह मिलते है उसे 'भक्तियोग' कहते है।
सुरत का शब्द से मेल होकर मन और श्वास इन दोनों को पकड़ लेता है। ऐसे चारो मिलने का संयोग होता है उसे 'भक्तियोग' कहते है। 'सतस्वरुपी राम' नाम से जब लव लगेगी आठो प्रहर अमृत टपकने लगेगा।
ऐसा आदि सतगुरुजी महाराज साहेब कहते है।

।। राम राम सा।।
।। आदि सतगुरुजी महाराज साहेब।।

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सुख विलास ◑साझन◐

⊙ मिशन सतस्वरुप ⊙
   ।। सुखविलास।।

मारग माहि देखकर।
पाया सुखविलास।।
ओ साझन 'सुखराम' कहें।
सिंवरो साँस उसांस।।

सूरत शिखर में रम रही।
ररंकार सु बात।।
ओ समियो 'सुखराम' कहें।
जन्म मरण लग साथ।।

आदि सतगुरुजी महाराज साहेब कहते है की....मेरी सूरत शिखर में रमण कर रही है और ररंकार से बात कर रही है। ऐसा समय मेरे जन्म से मरने तक रहेगा और परममोक्ष के रास्ते में मैंने यह सारा 'सुख विलास' देखा और यह सब मुझे इसलिए मिला क्योंकि मैंने श्वास उश्वास में 'सतस्वरुपी राम' नाम का सुमिरन किया। इस समूचे विश्व में 'जीवित अवस्था में परममोक्ष' का यही एकमात्र साधन है और इस सृष्टि अन्य कोई साधन नहीं है।

।। राम राम सा।।
।। आदि सतगुरुजी महाराज साहेब।।

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सतगुरु परख

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⊙ मिशन सतस्वरुप ⊙
   ।। सतगुरु पारख।।

ब्रह्मा रचिया सृजन कु।
विष्णु करन प्रतिपाल।।
शिव रच्या संहार कु।
इंद्र बरसन मेघ माल।।
पाप पूण्य का न्याव कु।
सिरजो हे जमराज।।
संत सिरज्या "सुखराम" कहें।
जिव उधारण काज।।

आदि सतगुरुजी महाराज साहेब कहते है... ब्रह्मा का सृजन (निर्माण) सृष्टि निर्मिती के लिए है। विष्णु पालन करने हेतु तथा इंद्र वर्षा करने हेतु और यमराज पाप पुण्य का न्याय करने हेतु निर्माण किये गए है। उसी प्रकार "सतस्वरुपी संत" जिव के उद्धार के लिए ही निर्माण किये गए है।

।। राम राम सा।।
।। आदि सतगुरुजी महाराज साहेब।।

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