Sunday, 30 March 2014

विकल मन

सन्तदास मन विकल है,
अटक न माने काय ॥
बुरा भला देखे नहीं,
जहाँ तहाँ चल जाय ॥१॥

बपड़ा तन को सन्तदास,
फिरे उड़ाया मन्न ॥
जो या मन को बस करे,
सो कोइ साधु जन्न ॥२॥

मन हस्ती महमन्त है,
बहता है मंदमंत ॥
अंकुश दे गुरु शब्द का,
फेरत है कोइ संत ॥३॥

मन चंचल था सन्तदास,
मिलिया निश्चल माहिं ॥
चंचल से निश्चल भया,
अब कहूँ चलता नाहिं ॥४॥
 
कोइ कोटि साधन करो,
ल्यो काशी में तेग ॥
राम भजन बिन सन्तदास,
मिटे न मनका वेग ॥५॥

तन कूँ धोया क्या हुआ,
जो मन कूँ धोया नाहिं ॥
तन कूँ धोया बाहरा,
मैल रह्या मन माहिं ॥६॥

मन की लहरया सन्तदास,
ताकी लार न जाय ॥
सतगुरु का उपदेश सूँ ,
ता बिच रहे समाय ॥७॥

अगल बगल कूं सन्तदास,
भटकत है बेकाम ॥
मिलिया चाहो मुक्तिकूँ,
तो निशिदिन कहिये राम ॥८॥

क्या होता है सन्तदास,
बहुता किया उपाय ॥
राम नाम सूं मन मिले,
जीव बुद्धि तब जाय ॥९॥

मन लागा रहे रामसूं ,
तो भावै जहाँ रहो तन्न ॥
ऐसी रहणी सन्तदास,
रहता है कोइ जन्न ॥१०॥ 

राम नाम कूँ छाँड के,
पढ़ि है वेद पुराण ॥
जिना न पाया सन्तदास,
निर्भय पद निर्वाण ॥११॥

गरक रहो गुरु ज्ञान में,
राम नाम रस पीव ॥
फिर न कहावे सन्तदास,
चौरासी का जीव ॥१२।।

................................ संतदास

Monday, 24 March 2014

नानक

हरि बिनु तेरो को न सहाई।
काकी मात-पिता सुत बनिता,
को काहू को भाई॥

धनु धरनी अरु संपति
सगरी जो मानिओ अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै,
कहा ताहि लपटाई॥

दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन,
ता सिउ रुचि न बढाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ,
ज्यों सुपना रैनाई॥

............................... नानक

आदि अनमोल वचन

मै रिजु इन बात सु।
सुन लीजो नर नार।।
मेरा होय मोकु मिले।
तब पावे दीदार।।
तो पावे दीदार।
निजमन सुंपो लाई।।
तब प्रगटे तन माय।
अखंड नख चख विच आयी।।
सुखराम कहें इन रित बिन।
हंस न उतरे पार।।
मै रिजु इन रित सु।
सुन लीजो नर नार।।

...............( सतगुरु मेहेर )

केस बराबर अंतरों।
जे हंस राखो कोय।।
तो आ किरपा ना बने।
एसी कुदरत होय।।
एसी कुदरत होय।
निजमन माने नाही।।
कपट लिया आधीन।
ताय पर जावे नाही।।
सुखराम कहें पच पच मरो।
गरज सरे नही कोय।।
केश बराबर अन्तरो।
जे नर राखो कोय।।

...............( सतगुरु मेहेर )

केवल को सुण बिज।
गेब सु जन में आवे।।
नही करनी के माय।
ग्यान सुई भेद न पावे।।
ना केवल उपदेश।
मांड में रहे न कोई।।
जहाँ प्रगटे जन माय।
सो तारे हंस सोई।।
सुखराम अनंत ले उधऱ्या।
से जन हंस जूग माय।।
ग्यानी ध्यानी जक्त सु।
आ कल लखी न जाय।।

...............( सतगुरु मेहेर )

।। आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज ने धिन्न हो।।


संत दादू साहेब

सतगुरु पसु मानस करै,
मानस थैं सिध सोइ।
दादू सिध थैं देवता,
देव निरंजन होइ ।।

दयामूर्ति सतगुरु,
दृढ़ मति (निश्चल बुद्धि) जिज्ञासु को विषयों की दासता रूप पशुता से बचाकर मनुष्य बनाते है
और
स्त्री, पुत्र, पौत्र आदि की
कामना वाले मनुष्यों को ज्ञान उपदेश द्वारा सिद्ध बनाते हैं
अर्थात्
राम-नाम में एकाग्र बुद्धि करते हैं।
तत्पश्चात् चमत्कार अहंकार की सिद्धाई से देव अर्थात् सगुण व निर्गुण ब्रह्म में एकाग्र करते हैं।
जिससे वह असीम ऐश्वर्य अनुभव करने
लगता है।
किन्तु सिद्ध और देव पद भी मायिक ही हैं, अर्थात्  मायावी हैं तो सतगुरु की अति सामर्थ्य क्या हुई ?
इस शंका का समाधान करके कहते हैं कि "देव निरंजन होइ''
अर्थात् सर्व सामर्थ्यवान् सतगुरु जिज्ञासु को देव पद से उपदेश द्वारा निरंजन निराकार स्वरूप भी बना लेते हैं। अत:
सतगुरु सर्वसमर्थ हैं |

सर्व सामर्थ्यवान सतगुरु पशु को भी कृपा करके राम - नाम उपदेश द्वारा मुक्त करते हैं,
जैसे :- बनजारे के बैलों और गुठले के प्रदेश में गायों का उद्धार किया है और मनुष्यों को भी राम - नाम के उपदेश द्वारा संसार बन्धन से मुक्त किया है।
सतगुरु ज्ञानोपदेश द्वारा सिद्धों को भी मुक्त करते हैं, जैसे आमेर में काबुल के घोड़ों को देखते हुए दो सिद्धों का प्रसंग है।

दोई सिद्ध स्वामी पै आये,
घोड़ा देख रु मन मुस्काये।
स्वामी कहैं कहाँ चित्त दीन्हां,
नीले कान सु आगे कीन्हा।।

दो सिद्ध उत्तराखंड से सुरति रूपी शरीर द्वारा, आमेर में दादू जी की गुफा में पहुँचे। दादू जी ध्यानावस्था में थे।
वे दोनों सिद्ध सुरति से काबुल में दौड़ के घोड़े देखने लगे और यह विचार किया कि इस आनन्द को हम ही देखते हैं, दादू जी नहीं देख रहे हैं।
तब दादू दयाल जी ने उन सिद्धों को उपदेश किया
"मायिक पदार्थों में क्या दिल दिया ?
और दिया भी तो ठीक से देखो।
आगे कौन- सा घोड़ा है ?''
सिद्धों ने कहा- " दोनों बराबर हैं।''
दादू जी ने कहा- " नीले घोड़ें के कान आगे हैं।''

कृपालु सतगुरु राम-नाम के प्रभाव से सिद्धों को भी मुक्त करते हैं। जैसे करडाले में प्रेत का आख्यान आता है। मनुष्यों की चार श्रेणी मानी हैं - पामर, विषयी, जिज्ञासु
और मुक्त। शास्त्रों में पहले पामर श्रेणी के मनुष्य को उपदेश का अधिकारी नहीं माना जाता है।

श्री सतगुरु की अति कृपा से ज्ञानोपदेश द्वारा वारा, तीनों श्रेणी के जिज्ञासुजों को मुक्त करते हैं, यही सतगुरु की अति सामर्थ्य है।

भोज नृपति को देखि के,
कन्या ढक्यो न सीस।
नृप पूछी गुरु पै गयो,
मनुष्य लक्षण बत्तीस।।

एक समय राजा भोज दौरा करके अपने नगर में वापिस लौट रहे थे। चार कन्याएँ कुए पर खड़ी थीं। राजा को देखकर तीन लड़कियों ने सिर ढक लिया। उनमें से
एक ने नहीं ढका। बाकी तीन सहेलियों ने उसे भी सिर ढकने को कहा, क्योंकि राजा आ रहा है।
उसने कहा - यह राजा नहीं, यह पशु है । राजा ने पूछा :- पुत्री, मैं पशु कैसे हूँ ?
कन्या ने कहा मेरे गुरु बताएँगे, जो नाग पहाड़ पर रहते हैं।
राजा वहाँ पर गया।
गुफा के दरवाजे पर सिला लगी देखी।
राजा ने आवाज लगाई -
" दर्शन करने आया हूँ ''
अन्दर से संत जी बोले :- " कौन हो ?''
" मैं राजा हूँ ''
" फिर अन्दर आ जाओ।''
राजा ने कहा- '' सिला लगी है।''
संत जी बोले :- " तुम सत्य बोलो कौन हो ?''
फिर कहा " मैं राजा हूँ।''
संत जी बोले - "
राजा तो एक राम हुआ है, उसके समान हो तो हाथ लगाओ, सिला स्वयं हट जाएगी।'' राजा ने हाथ लगाया परन्तु सिला नहीं हटी। संत जी ने कहा :-
" सत्य बोलो।'' तब
राजा बोला - " मैं क्षत्रिय हूँ।''
संत जी बोले :- " क्षत्रिय
तो एक अर्जुन हुआ है।
वैसा पराक्रम है तो हाथ लगाओ, सिला हट जायेगी।''
राजा बोला :- " सिला नहीं हटती।''
संत जी पुन: बोले :- " सत्य बोले, कौन हो ?''
राजा बोला- " मैं मनुष्य हूँ ''
संत जी बोले, " इस समय मनुष्य तो एक
राजा भोज है। आप वह हैं तो हाथ लगाओ सिला हट जाएगी।''
राजा ने हाथ लगाया, सिला एक दम हट गई। सन्तजी को नमस्कार किया और दर्शन करके राजा भोज उनके उपदेश से अपने में एक मानव का निश्चय करके कृत -कृत्य हो गया।

(श्री दादूवाणी - गुरुदेव का अंग)

कहत कबीर

कहत कबीरा

कबीर कहता जात हूँ,
सुणता है सब कोइ।
राम कहें भला होइगा,
नहिं तर भला न होइ॥1॥

कबीर कहै मैं कथि गया,
कथि गया ब्रह्म महेस।
राम नाँव सतसार है,
सब काहू उपदेस॥2॥

तत तिलक तिहूँ लोक मैं,
राम नाँव निज सार।
जब कबीर मस्तक दिया
सोभा अधिक अपार॥3॥

भगति भजन हरि नाँव है,
दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बचा क्रमनाँ,
कबीर सुमिरण सार॥4॥

कबीर सुमिरण सार है,
और सकल जंजाल।
आदि अंति सब सोधिया
दूजा देखौं काल॥5॥

चिंता तौ हरि नाँव की,
और न चिंता दास।
जे कछु चितवैं राम बिन,
सोइ काल कौ पास॥6॥

पंच सँगी पिव पिव करै,
छटा जू सुमिरे मन।
मेरा मन सुमिरै राम कूँ,
मेरा मन रामहिं आहि॥7॥

मेरा मन सुमिरै राम कूँ,
मेरा मन रामहिं आहि।
अब मन रामहिं ह्नै रह्या,
सीस नवावौं काहि॥8॥

तूँ तूँ करता तूँ भया,
मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई,
जित देखौं तित तूँ॥9॥

कबीर निरभै राम जपि,
जब लग दीवै बाति।
तेल घट्या बाती बुझी,
(तब) सोवैगा दिन राति॥10॥

कबीर सूता क्या करै,
जागि न जपै मुरारि।
एक दिनाँ भी सोवणाँ,
लंबे पाँव पसारि॥11॥

कबीर सूता क्या करै,
काहे न देखै जागि।
जाका संग तैं बीछुड़ा,
ताही के संग लागि॥12॥

कबीर सूता क्या करै
उठि न रोवै दुक्ख।
जाका बासा गोर मैं,
सो क्यूँ सोवै सुक्ख॥13॥

कबीर सूता क्या करै,
गुण गोबिंद के गाइ।
तेरे सिर परि जम खड़ा,
खरच कदे का खाइ॥14॥

कबीर सूता क्या करै,
सुताँ होइ अकाज।
ब्रह्मा का आसण खिस्या,
सुणत कालको गाज॥15॥

केसो कहि कहि कूकिये,
नाँ सोइयै असरार।
राति दिवस के कूकणौ,
(मत) कबहूँ लगै पुकार॥16॥

जिहि घटि प्रीति न प्रेम रस,
फुनि रसना नहीं राम।
ते नर इस संसार में,
उपजि षये बेकाम॥17॥

कबीर प्रेम न चाषिया,
चषि न लीया साव।
सूने घर का पाहुणाँ,
ज्यूँ आया त्यूँ जाव॥18॥

पहली बुरा कमाइ करि,
बाँधी विष की पोट।
कोटि करम फिल पलक मैं,
(जब) आया हरि की वोट॥19॥

कोटि क्रम पेलै पलक मैं,
जे रंचक आवै नाउँ।
अनेक जुग जे पुन्नि करै,
नहीं राम बिन ठाउँ॥20॥

जिहि हरि जैसा जाणियाँ,
तिन कूँ तैसा लाभ।
ओसों प्यास न भाजई,
जब लग धसै न आभ॥21॥

राम पियारा छाड़ि करि,
करै आन का जाप।
बेस्वाँ केरा पूत ज्यूँ,
कहे कौन सूँ बाप॥22॥

कबीर आपण राम कहि,
औरां राम कहाइ।
जिहि मुखि राम न ऊचरे,
तिहि मुख फेरि कहाइ॥23॥

जैसे माया मन रमै,
यूँ जे राम रमाइ।
(तौ) तारा मण्डल छाँड़ि करि,
जहाँ केसो तहाँ जाइ॥24॥

लूटि सकै तो लूटियो,
राम नाम है लूटि।
पीछै ही पछिताहुगे,
यहु तन जैहै छूटि॥25॥

लूटि सकै तो लूटियो,
राम नाम भण्डार।
काल कंठ तै गहैगा,
रूंधे दसूँ दुवार॥26॥

लम्बा मारग दूरि घर,
विकट पंथ बहु मार।
कहौ संतो क्यूँ पाइये,
दुर्लभ हरिदीदार॥27॥

गुण गाये गुण ना कटै,
रटै न राम बियोग।
अह निसि हरि ध्यावै नहीं,
क्यूँ पावै दुरलभजोग॥28॥

कबीर कठिनाई खरी,
सुमिरतां हरि नाम।
सूली ऊपरि नट विद्या,
गिरूँ तं नाहीं ठाम॥29॥

कबीर राम ध्याइ लै,
जिभ्या सौं करि मंत।
हरि साग जिनि बीसरै,
छीलर देखि अनंत॥30॥

कबीर राम रिझाइ लै,
मुखि अमृत गुण गाइ।
फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन,
संधे संधि मिलाइ॥31॥

कबीर चित्त चमंकिया,
चहुँ दिस लागी लाइ।
हरि सुमिरण हाथूं घड़ा,
बेगे लेहु बुझाइ॥32॥

.......................... कबीरा

Sunday, 23 March 2014

एको दोष विनाश

मृग-मीन-भृंग-पतंग-कुंजर।
एको दोष विनाश।।
पञ्च दोष असाधता।
ता की केतिक आस।।

मृग=हिरण

मीन=मछली

भृंग=भँवरा

पतंग=पतंगा

कुञ्जर=हाथी

..................एको दोष विनाश

इन प्राणियों
में एक एक दोष
होने की वजह से
इनका प्राण जाता है।

ये काल के भक्ष बन जाते है।

जैसे...

मृग=हिरण-(कर्ण सुख)

मीन=मछली-(जिव्हा सुख)

भृंग=भँवरा-(नासिका सुख)

पतंग=पतंगा-(दृष्टी सुख)

कुञ्जर=हाथी-(स्पर्श सुख)

...........अगर
एक एक दोष से
इनके प्राण जाते है...तो..

हममे पांचो दोष है...
तो हमारी क्या स्थिति होगी ?

यह सोचो.....

अवस्था - दादू साहेब

(बाल्यावस्था)

पहले पहरे रैणि दे,
बणिजारिया,
तूँ आया इहि संसार वे ।
मायादा रस पीवण लग्गा,
बिसार्या सिरजनहार वे ।
सिरजनहार बिसारा किया पसारा,
मात पिता कुल नार वे ।
झूठी माया आप बँधाया,
चेतै नहीं गँवार वे ।
दादू दास कहै,
बणिजारा,
तूँ आया इहि संसार वे ॥ १ ॥

(तरुण अवस्था)

दूजे पहरै रैणि दे,
बणिजारिया,
तूँ रत्ता तरुणी नाल वे ।
माया मोह फिरै मतवाला,
राम न सक्या संभाल वे ।
राम न संभाले,
रत्ता नाले,
अंध न सूझै काल वे ।
हरि नहीं ध्याया,
जन्म गँवाया,
दह दिशि फूटा ताल वे ।
दह दिशि फूटा,
नीर निखूटा,
लेखा डेवण साल वे ।
दादू दास कहै,
बणिजारा,
तूँ रत्ता तरुणी नाल वे ॥ २ ॥

(प्रौढ अवस्था)

तीजे पहरे रैणि दे,
बणिजारिया,
तैं बहुत उठाया भार वे ।
जो मन भाया,
सो कर आया,
ना कुछ किया विचार वे ।
विचार न कीया
नाम न लीया,
क्यों कर लंघै पार वे ।
पार न पावे,
फिर पछितावे,
डूबण लग्गा धार वे ।
डूबण लग्गा,
भेरा भग्गा,
हाथ न आया सार वे ।
दादू दास कहै,
बणिजारा,
तैं बहुत उठाया भार वे ॥ ३ ॥

वृद्धावस्था जर्जरी भूत (वृद्धावस्था)

चौथे पहरे रैणि दे,
बणिजारिया,
तूँ पक्का हुआ पीर वे ।
जोबन गया,
जरा वियापी,
नांही सुधि शरीर वे ।
सुधि ना पाई,
रैणि गँवाई,
नैंनहुँ आया नीर वे ।
भव-जल भेरा डूबण लग्गा,
कोई न बंधै धीर वे ।
कोई धीर न बंधे जम के फंधे,
क्यों कर लंघे तीर वे ।
दादू दास कहै,
बणिजारा,
तूँ पक्का हुआ पीर वे ॥ ४ ॥

............................दादू साहेब

संत महिमा

विधि-हरि-हर-कवि-कोविद-वाणी।।
कहत साधू महिमा सिकुचानी।।
ओ मोसन कही जात न कैसे।।
शाक-वनिक-मुनि-गुनी-जन जैसे।।

विधि=ब्रह्मा,

हरि=विष्णू,

हर=महादेव,

कवि=कवि,

कोविद=पंडित,

वाणी=सरस्वती,

ये भी
साधू संतो की महिमा
करने में संकोचते है।

मै
साधारण सामान्य व्यक्ति
ऐसे महान साधू-संतो के गुण
किस प्रकार से गाऊ ?
वर्णन करु ?

कुछ प्रश्न ....


प्रश्न-
पवन बिना दो शब्द कौनसे ?

पवन बिना शब्द है दोई।
सात पुरुष बिन पाणी।।
के सुखराम परमपद यासु।
पेला परे पिछाणी।।

प्रश्न- गांगरी और न्यारी करसु शायके का मतलब समझाओ ?

जल में डारी गांगरी।
तुरत गले नही काय।।
न्यारी करसु शायके।
फिर फिर लेत उठाय।।

प्रश्न- शारीर छूटने पर प्राण किन किन दिशा से कहाँ कहाँ जाता है ?

।।आदि सतगुरु सुखराम जी महाराज ने धिन्न हो।।

Friday, 21 March 2014

यह कालमुक्ति क्या है ?

सतलोक की सकल सुनावां,
वाणी हमरी अखवै ||

नौ लख पटटन ऊपर खेलूं,
साहदरे कूं रोकूं |
व्दाजस कोटि कटक सब काटूं,
हंस पठाऊ मोखूं ||

चौदह भुवन गमन है मेरा,
जल थल में सरबंगी |
खालिक खलक खलक में खालिक,
अविगत अचल अभंगी ||

अगर अलील चकर है मेरा,
जित से हम चल आए |
पांचों पर परवाना मेरा,
काल छुटावन धाये ||

जहाँ ओंकार निरंजन नाही,
बरह्मा विष्णु वेद नाही जाही |
जहाँ करता नहीं जान भगवाना,
काया माया पिण्ड न जिवा ||

पाँच तत्व तीनों गुण नाही,
जोरा काल दीप नहीं जाहीं |
अमर करूं सतलोक पठाँऊ,
तातै कालमुक्ती कहाऊँ ||

                           ।।कबीर साहेब।।
                             राम राम सा………

मिशन सतस्वरुप किसने और कब शुरू किया ?

⊙मिशन सतस्वरुप⊙

प्रश्न- यह मिशन सतस्वरुप किसने और कब शुरू किया है ?

यह मिशन सतस्वरुप आदि सतगुरू, सर्व आत्माओंके सतगुरु,सर्व श्रृष्टि के सतगुरु, सतगुरु सुखरामजी महाराज ने इस श्रृष्टि की रचना हुयी तबसे शुरू किया।

          आदिसे (जबसे सृष्टी निर्माण हुई)है। ब्रम्हा, विष्णू, महादेव, शक्ती, शेष सब  सतस्वरुप परमात्मा का आधार लेके इस सृष्टी मे अपना अपना कार्य पूरा कर रहे है।
उन्होंने फैलाया हुआ माया जाल छेद कर जिवोको हंसो को अमर लोक (सतस्वरुप आनंद्पद) में ले जाने के लिए आदि श्रृष्टि रचना से लेकर आज तक हर युगमे 'आदि सतगुरू जी महाराज साहेब' आते है।
यह सतस्वरुप का विज्ञान जिवोंतक पहुचाते है। उन्हे भवसागरसे निकालकर अमरलोकमे लेके जाते है।

      ऎसेही इस कलजुग मे  "आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज "राजस्थान मे (भरतखंडमे) 'जोधपुर' जिलामे बिराही' गावमे ब्राम्हण कुलमे सन १८७३ मे आये।
आदि सतगुरू महाराज गर्भवास मे नही आये बल्की "सुखराम" नामके बालक के देहमे (जब बालक का शारीर छुट गया तो) सतस्वरुप (अमरलोक) आनंद्पद से आकर प्रवेश किया तब उस सुखराम नाम के बालक के  देह में चेतनता आ गयी।
पश्चात् आदि सतगुरु महाराज ने अखंडीत रुप से अठरा साल तक एक पत्थरपर बैठकर सतस्वरुप परमात्मा  की भक्ती (रामनाम का भेदसहित सुमिरण) की और घट में ही ने:अन्छर की प्राप्ति करके नब्बे साल तक रहकर सव्वा लक्ष जीवोंको परम मोक्ष मे लेके गये।
अभी भी उनका सत्ता रुपसे कार्य शुरु है इसकी अनुभूति आप स्वयं श्वास उश्वास में भजन करके अपने शरीर में ही ले सकते हो। आपको तिलभर भी इधर उधर खोजना नही है।

©
॥ राम राम सा॥
।। सतस्वरुप-आनंद्पद-ने:अन्छर-निजनाम ग्रन्थ से।।